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बकरीद मनाने का कारण और कुर्बानी का महत्व: जानें इसके पीछे की कहानी

बकरीद ईद उल फितर यानी कि मीठी ईद के 2 महीने के बाद मनाया जाता है और इसे ईद उल अजहा कहते हैं। जानकार बताते हैं कि ईद उल अजहा के मौके पर ऊंट, भेड़, बकरा आदि हलाल जानवर की कुर्बानी देना सुन्नत (पवित्र) माना जाता है। अगर किसी जानवर की आंख, नाक, कान या फिर शरीर का कोई अंग सही न हो तो उसकी कुर्बानी नहीं दी जाती है। आइए आपको बताते हैं क्‍यों मनाई जाती है और इस दिन बकरे की कुर्बानी की परंपरा कैसे शुरू हुई।

इस्लामिक मान्यताओं में बताया गया है कि जब पैगंबर मुहम्‍मद साहब को 90 साल की उम्र तक कोई संतान नहीं मिली। तो खुदी की इबादत से उन्‍हें चांद-सा बेटा इस्माइल मिला। फिर कुछ समय बीत जाने के बाद बाद इब्राहिम को सपने में आदेश हुआ कि खुदा की राह में कुर्बानी दो। उन्होंने पहले ऊंट की कुर्बानी दी। उन्हें फिर से सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज खुदा पर कुर्बान कर दो। इस पर उन्‍होंने अपने सारे जानवर कुर्बान कर दिए। फिर से उन्‍हें सपना आया अपनी सबसे अजीज चीज कुर्बान करने का, तो इस बार बारी थी उनके बेटे की।

बेटे को कुर्बान होता नहीं देख सकते थे, इसलिए उन्‍होंने कुर्बानी के वक्‍त अपनी आंखों पर काली पट्टी बांध ली थी। कुर्बानी देने के बाद जब उन्होंने आंखों से पट्टी खोली तो इस्माइल को खेलते हुए देखा और इस्माइल की जगह पर एक बकरे की कुर्बानी हो चुकी थी। बस तभी से कुर्बानी की परंपरा चल पड़ी और हर साल ईद उल अजहा पर कुर्बानी दी जाती है। बकरे की कुर्बानी के बाद उसके गोश्त को तीन हिस्सों में बांटा जाता है। जानकार बताते हैं कि यह सलाह शरीयत में दी गई है। गोश्त का एक हिस्सा गरीबों में बांटा जाता है। दूसरा हिस्सा रिश्तेदारों के लिए और तीसरा हिस्सा अपने घर के लिए रखा जाता है।

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